दूरी जो करीब ले आई - विश्वनाथ सिंह

दूरी जो करीब ले आई - विश्वनाथ सिंह

7 मिनट

पढ़ने का समय

शाम ढलने को थी और पुराने पुश्तैनी मकान के दालान में वंदना मटर छील रही थी। उसकी उंगलियाँ तेज़ी से चल रही थीं, लेकिन दिमाग में घर के बजट की उधेड़बुन चल रही थी। तभी सास, सुमित्रा काकी, तुलसी के पौधे में दीya जलाने के बाद उसके पास आकर बैठ गईं।




"बहू, मटर थोड़ी कम ही डालना सब्जी में, कल सुबह के पोहे के लिए भी बचा लेना," सुमित्रा काकी ने अपनी स्वाभाविक आदत के अनुसार हिदायत दी।




वंदना ने एक गहरी सांस ली और हाथ रोककर सास की ओर देखा, "मां जी, बचाने को तो मैं अपनी जान भी बचाकर नहीं रखती इस घर के लिए। लेकिन सवाल ये है कि बचत कब तक सिर्फ हम ही करेंगे? सूरज भैया की तरफ से इस महीने भी राशन के पैसे नहीं आए। आखिर कब तक कमलेश अकेले पूरी गाड़ी खींचेंगे?"




सुमित्रा काकी का चेहरा थोड़ा सख्त हो गया। उन्होंने पल्लू ठीक करते हुए कहा, "फिर वही बात? अरे, छोटा है वो। अभी उसका नया-नया काम जमा है। ऊपर से उसकी पत्नी, नीता बेचारी अभी घर समझने की कोशिश ही तो कर रही है। तुम जेठानी होकर इतना भी नहीं कर सकतीं?"




वंदना की आँखों में एक नमी तैर गई। वह बोली, "मां जी, मैं जेठानी हूँ, कोई कुबेर का खजाना नहीं। पिछले हफ्ते सूरज को मैंने दोस्तों के साथ महँगी पार्टी करते देखा था। और कल ही नीता अपने मायके जाने के लिए नई साड़ी खरीद कर लाई है। अगर उनके शौक पूरे हो रहे हैं, तो घर की जिम्मेदारी क्यों नहीं?"




तभी पीछे से नीता चाय लेकर आई। काँच के गिलासों की खनखनाहट ने बातचीत रोक दी। नीता ने धीमी आवाज़ में कहा, "दीदी, वो साड़ी तो माँ ने पैसे भेजे थे तब ली थी..."




वंदना ने कुछ नहीं कहा, बस चुपचाप अपनी छनी हुई मटर को समेटने लगी। उसे पता था कि इस घर में 'छोटे' की हर गलती माफ है और 'बड़ों' की हर शिकायत गुनाह।




कमरे की खामोशी और एक बड़ा फैसला



रात के खाने के बाद, वंदना और कमलेश अपने कमरे में थे। कमरे की पुरानी खिड़की से बाहर का सन्नाटा झाँक रहा था। कमलेश अपनी डायरी में हिसाब लिख रहा था, माथे पर चिंता की लकीरें साफ दिख रही थीं।




"कमलेश," वंदना ने धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा, "क्या हम ज़िंदगी भर सिर्फ 'बड़े भैया-भाभी' होने का टैक्स भरते रहेंगे?"




कमलेश ने कलम नीचे रख दी। "मैं जानता हूँ वंदना, तुम पर कितना दबाव है। मैं माँ को समझा-समझा कर थक गया हूँ। उन्हें लगता है कि हम सूरज से जलते हैं।"




वंदना ने दृढ़ता से कहा, "बात जलने की नहीं, बात उसे अपाहिज बनाने की है। जब तक उसे पता है कि भैया हैं ना, वो कभी अपने पैरों पर खड़ा नहीं होगा। हमें अलग होना होगा। लड़ाई करके नहीं, पर अपनी गृहस्थी अलग करनी होगी। कंपनी का वो प्रोजेक्ट जो शहर के दूसरे छोर पर शुरू हो रहा है, तुम वहां के क्वार्टर के लिए हाँ कर दो।"




कमलेश चौंक गया, "लेकिन माँ-बाबुजी? लोग क्या कहेंगे?"




"लोग तब भी कहेंगे जब तुम्हारे बच्चे अच्छी शिक्षा से वंचित रह जाएंगे क्योंकि तुमने अपने भाई के शौक पूरे किए," वंदना ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा। "अलग होने का मतलब रिश्ता तोड़ना नहीं होता कमलेश, कभी-कभी दूर रहकर ही रिश्तों की अहमियत समझ आती है।"




आँगन में विस्फोट



दो हफ्ते बाद, रविवार की सुबह जब पूरा परिवार आँगन में नाश्ता कर रहा था, कमलेश ने गला साफ़ किया।




"बाबुजी, माँ... मुझे कंपनी की नई साइट पर शिफ्ट होना पड़ रहा है। आने-जाने में रोज चार घंटे बर्बाद होते हैं। इसलिए, कंपनी ने वहां फ्लैट दिया है। हम अगले महीने वहां शिफ्ट हो रहे हैं।"




सुमित्रा काकी के हाथ से निवाला छूट गया। "क्या? तू हमें इस बुढ़ापे में छोड़कर जाएगा? मैंने तुझे इसीलिए बड़ा किया था? और इस घर का खर्चा? सूरज अभी नादान है..."




"सूरज नादान नहीं, 28 साल का आदमी है माँ," बाबुजी, रामनाथ जी, जो अब तक अखबार में मुंह गड़ाए बैठे थे, अचानक बोल पड़े। उनकी आवाज़ में एक अजीब सी कड़कड़ाहट थी।




सब हैरान होकर बाबुजी को देखने लगे। रामनाथ जी ने चश्मा उतारा और बोले, "सुमित्रा, बहुत हो गया। कमलेश कब तक बैसाखी बनेगा? अगर वो जा रहा है, तो उसे जाने दो। उसे भी अपने बच्चों के भविष्य के लिए सोचना है। और रही बात सूरज की..." उन्होंने सूरज की तरफ देखा जो नज़रें चुरा रहा था, "तो अब वक्त आ गया है कि वो यह साबित करे कि वो मेरा बेटा है, कोई मेहमान नहीं।"




सन्नाटा ऐसा था कि घड़ी की टिक-टिक भी हथौड़े जैसी लग रही थी। नीता का चेहरा फक पड़ गया था।




सूनी रसोई और जिम्मेदारी का पाठ



वंदना और कमलेश के जाने के बाद, पुराना घर बहुत बड़ा और खाली लगने लगा था। शुरुआत में सुमित्रा काकी बहुत रोईं, सूरज ने भी गुस्से में कहा, "देख लिया भैया का असली रंग।"




लेकिन असली रंग तो ज़िंदगी ने दिखाना शुरू किया। अगले ही महीने जब बिजली का बिल आया, तो सूरज के होश उड़ गए।




"इतना बिल? भैया तो कभी इतना नहीं बताते थे," सूरज ने झुंझलाते हुए कहा।




"बेटा, भैया अपनी जेब से आधा भर देते थे, तुझे पता भी नहीं चलता था," रामनाथ जी ने खांसते हुए याद दिलाया।




धीरे-धीरे घर का राशन खत्म होने लगा। नीता जो पहले देर तक सोती थी, अब उसे सुबह उठकर सोचना पड़ता था कि नाश्ते में क्या बनेगा जो सस्ता भी हो और पेट भी भरे। एक दिन दूधवाले ने उधार देने से मना कर दिया।




शाम को सूरज थका-हारा घर लौटा। उसकी बाइक खराब थी और उसे बनवाने के पैसे नहीं थे। उसने देखा कि नीता आँगन में बैठी पुरानी साड़ियों में फाल लगा रही थी।




"ये क्या कर रही हो?" सूरज ने पूछा।




"पड़ोस की चाची का काम है, कुछ पैसे मिल जाएंगे," नीता ने बिना नज़र उठाए कहा। "गैस खत्म होने वाली है सूरज, और मेरे पास अब कोई जेवर नहीं बचा जिसे गिरवी रखूँ।"




उस रात सूरज को नींद नहीं आई। उसे छत की दीवार पर कमलेश भैया का चेहरा याद आ रहा था, जो हमेशा मुस्कुराते हुए कहते थे, "तू चिंता मत कर, मैं हूँ ना।" आज वो छत थी, पर वो साया नहीं था।




दिवाली की वो रोशन रात



छह महीने बीत चुके थे। दिवाली की रात थी। पुराने घर के दरवाजे पर एक कार रुकी। वंदना और कमलेश बच्चों के साथ उतरे, हाथों में मिठाइयाँ और उपहार थे।




जैसे ही वे अंदर आए, वंदना ने एक बदलाव महसूस किया। घर पहले से ज्यादा व्यवस्थित था। आँगन साफ था, और सुमित्रा काकी नई साड़ी पहने मुस्कुरा रही थीं।




"अरे आ गए मेरे बच्चे!" सुमित्रा काकी ने दौड़कर पोते-पोतियों को गले लगा लिया।




सूरज रसोई से बाहर आया, हाथ में चाय की ट्रे थी। "अरे भैया-भाभी, बैठिए। मैं अभी पकोड़े तलवाता हूँ नीता से।"




कमलेश ने गौर किया कि सूरज की चाल में एक नई गंभीरता थी।




बातों-बातों में सूरज ने बताया, "भैया, मैंने वो पुरानी आवारागर्दी छोड़ दी। अब मैं सुबह से दुकान पर बैठता हूँ। और शाम को ऑनलाइन डिलीवरी का काम भी शुरू किया है। नीता ने भी घर से टिफिन सर्विस शुरू की है। थोड़ी मेहनत ज्यादा है, पर..." उसने बाबुजी की तरफ गर्व से देखा, "इस बार बाबुजी की दवाई मैंने अपनी कमाई से मंगवाई है।"




वंदना ने देखा कि नीता, जो पहले सिर्फ फैशन की बातें करती थी, आज आत्मविश्वास से भरी लग रही थी।




खाना खाते वक्त सुमित्रा काकी ने वंदना का हाथ पकड़ लिया। उनकी आँखें भर आई थीं। "बहू, उस दिन मुझे लगा था तूने मेरा घर तोड़ दिया। पर आज देख रही हूँ, तूने तो मेरे घर को जोड़ दिया। अगर तुम लोग अलग न होते, तो मेरा सूरज कभी 'बेटा' नहीं बन पाता, वो बस 'छोटा भाई' ही रह जाता।"




वंदना ने मुस्कुराते हुए सास के हाथ पर अपना हाथ रखा। "माँ जी, पौधा जब बड़ा होता है, तो उसे थोड़ी धूप चाहिए होती है। बड़े पेड़ की छाया में छोटे पौधे पनप तो जाते हैं, पर मजबूत नहीं बनते।"




रात को लौटते वक्त, कार में कमलेश ने वंदना की तरफ देखा। "तुम खुश हो?"




वंदना ने सिर टिकाते हुए कहा, "बहुत। क्योंकि आज वहां कोई लाचार नहीं था। सब सक्षम थे। यही तो असली परिवार है।"




सीख: परिवार में प्रेम का अर्थ केवल साथ रहना नहीं, बल्कि एक-दूसरे को आत्मनिर्भर बनाना भी है। कभी-कभी थोड़ी दूरी, रिश्तों को नई और मज़बूत नज़दीकी देती है।


लेखक: विश्वनाथ सिंह