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जेठानी की जलन और सास का न्याय : बिखरते रिश्तों को जोड़ने वाली कहानी
7 मिनट
पढ़ने का समयमहकती खीर और जलती ईर्ष्या
बनारस के उस पुराने, नक्काशीदार हवेलीनुमा घर के बड़े से आँगन में सुबह की धूप उतर आई थी। तुलसी के चौरे के पास अगरबत्ती की महक और रसोई से आती इलायची की खुशबू ने पूरे घर को एक पवित्र वातावरण में ढाल दिया था। घर की छोटी बहू, सुमन, रसोई में बड़े चाव से खीर बना रही थी। आज घर में सत्यनारायण की कथा थी और उसकी सास, सावित्री देवी ने विशेष रूप से सुमन के हाथ की खीर बनवाने की इच्छा जताई थी।
सुमन का मन मयूर की तरह नाच रहा था। उसने आंच को बिल्कुल धीमा किया और खुद को यह तसल्ली देकर कि "खीर धीमी आंच पर ही स्वाद देती है," वह पिछवाड़े वाले बगीचे से पूजा के लिए ताजे फूल तोड़ने चली गई।
तभी रसोई के दरवाजे पर एक परछाई उभरी। यह घर की बड़ी बहू कामिनी थी। कामिनी की आँखों में नींद नहीं, बल्कि एक अजीब सी जलन तैर रही थी। पिछले तीन महीनों से जबसे सुमन इस घर में आई थी, कामिनी को लग रहा था जैसे उसकी सात साल की तपस्या मिट्टी में मिल गई हो। कामिनी ने देखा कि आसपास कोई नहीं है, तो उसने झट से गैस की आंच पूरी तेज़ कर दी।
मन ही मन वह बुदबुदाई, "बड़ी तारीफ होती है न इसके हाथ के स्वाद की, आज देखती हूँ सासू माँ कैसे चाटती हैं उंगलियाँ!"
धुआँ और गलतफहमी
सुमन जब फूलों की टोकरी लेकर गुनगुनाते हुए लौटी, तो रसोई से आती जलने की गंध ने उसके पैरों में जैसे बेड़ियाँ डाल दीं। वह दौड़कर भीतर गई। पतीले से काला धुआँ उठ रहा था और मलाईदार खीर अब कोयला बन चुकी थी।
"हे भगवान! ये क्या अनर्थ हो गया? मैं तो मद्धम आंच करके गई थी..." सुमन की आँखों में आँसू छलक आए।
तभी सावित्री देवी पूजा की तैयारी का जायजा लेने वहाँ आ पहुँचीं। उनके पीछे-पीछे कामिनी भी आ गई, जिसके चेहरे पर एक बनावटी चिंता और होठों पर छिपी हुई मुस्कान थी।
कामिनी तुरंत बोल पड़ी, "अरे सुमन! ये क्या किया? इतनी महँगाई में इतना दूध और मेवा जला दिया? तुम्हें कितनी बार समझाया है कि रसोई कोई खेल नहीं है, जिम्मेदारी है। लेकिन तुम्हारा ध्यान तो बस सजने-संवरने में रहता है।"
कामिनी के शब्दों में घी की तरह चिकनाहट थी, लेकिन भाव आग लगाने वाला था। सुमन, जो पहले ही डरी हुई थी, सहम कर पीछे हट गई।
"माँजी... मुझे नहीं पता ये कैसे हुआ... मैंने तो..." सुमन की आवाज़ गले में ही घुट गई।
सावित्री देवी ने एक पल के लिए जली हुई खीर को देखा, फिर कामिनी को और अंत में सुमन के आंसुओं को। उनका अनुभव कच्चा नहीं था। उन्होंने शांत स्वर में कहा—
"कोई बात नहीं सुमन। दूध ही तो जला है, किसी का नसीब तो नहीं फूटा। तू जाकर फ्रिज से फल निकाल और काट ले। खीर का भोग नहीं, आज फलों का भोग लगेगा। जल्दी कर।"
कामिनी सन्न रह गई। उसे उम्मीद थी कि आज तो सुमन की अच्छी क्लास लगेगी, पर यहाँ तो पासा ही पलट गया। सास का यह नरम रवैया कामिनी के सीने में शूल की तरह चुभ गया।
मन की कड़वाहट
दोपहर होते-होते कामिनी का गुस्सा सातवें आसमान पर था। वह अपनी तुलना हर पल सुमन से करती रहती थी। "मैं सुबह चार बजे उठकर चक्की की तरह पिसती हूँ, तब किसी को नहीं दिखता। और यह महारानी चार बातें मीठी क्या बोल देती है, सब इसी के गुणगान गाते हैं। क्या घर की पुरानी चादर की कोई कीमत नहीं होती?"
अपनी इसी जलन को ठंडा करने के लिए उसने शाम को एक और खेल खेलने की सोची। सावित्री देवी ने अपनी सबसे कीमती कश्मीरी पश्मीना शॉल, जो उन्हें उनके पति ने आखिरी निशानी के तौर पर दी थी, धूप में सूखने के लिए कुर्सी पर डाली थी।
कामिनी ने मौका देखा और उस शॉल को जानबूझकर ऐसे खिसका दिया कि वह नीचे गीली मिट्टी में जा गिरी। उसका इरादा साफ था—जब शॉल गंदी मिलेगी, तो इल्जाम सुमन पर आएगा क्योंकि उसी की जिम्मेदारी थी कपड़े उठाने की।
थोड़ी देर बाद जब सावित्री देवी बाहर आईं, तो उन्होंने शॉल को कीचड़ में सने देखा। कामिनी तुरंत मौके पर आ गई।
"हे राम! सुमन! तुम कितनी लापरवाह हो गई हो? बाबूजी की निशानी को तुमने कीचड़ में मिला दिया? माँजी, अब तो हद हो गई। इसे घर की कद्र ही नहीं है।" कामिनी ने अपनी आवाज़ ऊँची कर ली ताकि घर के बाकी सदस्य भी सुन लें।
सुमन अवाक खड़ी थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि हवा तो चल नहीं रही, शॉल गिरी कैसे?
सास का न्याय
सावित्री देवी ने शॉल उठाई, उसे झाड़ा और कामिनी की आँखों में सीधे देखते हुए कहा—
"कामिनी, ज़रा मेरे कमरे में आना। और दरवाजा बंद कर लेना।"
कामिनी के दिल में लड्डू फूटे। "चलो, अब बंद कमरे में सुमन की शिकायतें सुनी जाएंगी और उसे घर से निकालने की भूमिका बनेगी।"
लेकिन कमरे के भीतर का नज़ारा कुछ और ही था। सावित्री देवी आरामकुर्सी पर बैठी थीं और उनकी नज़रें बेहद सख्त थीं।
"कामिनी, सात साल हो गए तुझे इस घर की बहू बने। मैंने तुझे बेटी से बढ़कर माना। पर आज तूने मेरा सिर शर्म से झुका दिया।"
कामिनी सकपका गई, "माँजी, आप क्या कह रही हैं? गलती सुमन की है और डांट मुझे?"
सावित्री देवी ने गहरी सांस ली और कहा, "सुबह गैस की आंच भी तूने ही तेज़ की थी, मैंने तुझे परछाई में छिपकर निकलते देखा था। और अभी शॉल भी तूने ही गिराई है। मैं ऊपर बालकनी में खड़ी सब देख रही थी।"
कामिनी के पैरों तले से ज़मीन खिसक गई। उसका चेहरा फक पड़ गया।
सावित्री देवी ने आगे कहा, "तू बड़ी बहू है कामिनी। बड़ा होना केवल उम्र से नहीं होता, बड़प्पन दिखाने से होता है। सुमन तुझे अपनी बड़ी बहन मानती है। कल ही वह मुझसे कह रही थी कि 'दीदी कितना काम करती हैं, मैं तो उनके आगे कुछ भी नहीं।' और तू? तू उसकी जड़ें काटने में लगी है?"
कामिनी की आँखों में अब जलन की जगह शर्मिंदगी के आँसू थे।
"बहू, ईर्ष्या वो दीमक है जो भरे-पूरे परिवार को खोखला कर देती है। सुमन के आने से तेरी जगह कम नहीं हुई, बल्कि बँट गई है ताकि तुझे आराम मिले। तूने इसे 'अधिकार' की लड़ाई बना लिया, जबकि यह 'प्रेम' का साझा था।"
कामिनी घुटनों के बल बैठ गई और फूट-फूट कर रोने लगी। "माँजी, मुझे माफ कर दीजिए। मुझे लगा कि सब उसे ही प्यार करते हैं, मैं पुरानी हो गई हूँ... मेरी कोई पूछ नहीं रही।"
सावित्री देवी ने उठकर उसे गले लगा लिया। "पगली! नींव के पत्थर कभी पुराने नहीं होते, उन्हीं पर तो इमारत टिकी होती है। तू इस घर की नींव है और सुमन नई सफेदी। दोनों के बिना घर अधूरा है। घर को कुरुक्षेत्र मत बना, इसे वृंदावन बना रहने दे।"
नई सुबह, नई शुरुआत
अगली सुबह, नजारा बदला हुआ था।
सुमन तुलसी को जल चढ़ाने के लिए लोटा लेकर आ रही थी। वह अभी भी कल की घटनाओं से सहमी हुई थी। तभी कामिनी उसके पास आई और उसके हाथ से लोटा थाम लिया।
सुमन डर गई, "जीजी, वो... मैं..."
कामिनी ने मुस्कुराते हुए कहा, "रुक, मैं तेरी मदद कर देती हूँ। अकेली कब तक करेगी? आज से रसोई का भारी काम मैं देखूँगी, तू बस रोटियाँ सेक देना। तेरी रोटियाँ फूली हुई बनती हैं न!"
सुमन को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने देखा कि कामिनी की आँखों में आज वो कल वाली कड़वाहट नहीं, बल्कि एक बड़ी बहन का स्नेह था।
"सच जीजी?" सुमन खिलखिला उठी।
"हाँ पगली! आखिर हम दोनों एक ही गाड़ी के दो पहिए हैं। एक भी डगमगाया तो घर कैसे चलेगा?"
बरामदे में बैठी सावित्री देवी माला जपते हुए यह दृश्य देख रही थीं। उन्होंने आसमान की ओर देखकर हाथ जोड़े। उनके घर का 'ग्रहण' अब हट चुका था। रसोई से फिर से चाय की महक आ रही थी, जिसमें अब प्यार और विश्वास की मिठास घुली थी।
सीख: घर में अपना स्थान सुरक्षित करने के लिए किसी और को नीचे गिराने की ज़रूरत नहीं होती। जेठानी और देवरानी का रिश्ता प्रतिस्पर्धा का नहीं, बल्कि पूरक (एक-दूसरे को पूरा करने वाला) होना चाहिए। जहाँ बड़प्पन और सम्मान का मेल होता है, वहीं लक्ष्मी का वास होता है।