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सास की समझदारी: जब सुमित्रा काकी ने पड़ोसन के सामने बचाई बहू की इज़्ज़त
7 मिनट
पढ़ने का समयतुलसीपुर की दोपहर और विमला बुआ की दस्तक
दोपहर की तीखी धूप अब ढलने को थी। तुलसीपुर के इस पुराने, मगर रसूखदार मोहल्ले में सन्नाटा पसरा हुआ था। आमतौर पर इस समय कबूतरों की गुटरगूँ और छतों पर सूखते कपड़ों की फड़फड़ाहट ही सुनाई देती थी, लेकिन आज हवा में कुछ अलग ही उत्सुकता थी।
विमला बुआ, जिन्हें पूरा मोहल्ला 'चलती-फिरती अख़बार' कहता था, अपनी लाठी ठक-ठक करती हुई सुमित्रा काकी के बड़े से लोहे के गेट पर आ रुकीं। उनकी आँखों में चमक थी, जैसे किसी शिकारी को शिकार की गंध मिल गई हो।
“अरी ओ सुमित्रा! घर पर है क्या?” विमला बुआ ने अपनी चिर-परिचित तेज़ आवाज़ में पुकारा, “आज तो बड़ा सन्नाटा है, न बर्तनों की खनखनाहट, न बहुओं की चहचहाहट!”
भीतर, आँगन में तुलसी के चौरे के पास बैठी सुमित्रा काकी ने एक गहरी साँस ली। वह जानती थीं कि विमला बुआ का इस समय आना महज़ इत्तेफ़ाक नहीं है। सुबह जो थोड़ी-बहुत गहमागहमी हुई थी, उसकी भनक शायद हवाओं ने बुआ के कान तक पहुँचा दी थी।
“आ जाओ बुआ, चटकनी खुली ही है,” सुमित्रा ने अपनी आवाज़ को संयत रखते हुए जवाब दिया।
विमला बुआ ने अंदर कदम रखा और चारों तरफ अपनी स्कैन करने वाली नज़रों से देखा।
“और बता सुमित्रा, सब कुशल-मंगल तो है न? सुबह जब मैं मंदिर से लौट रही थी, तो तेरे घर से ज़रा ऊँची आवाज़ें आ रही थीं। मुझे लगा, कहीं तेरी नई-नवेली बहू काव्या ने कुछ बखेड़ा तो नहीं खड़ा कर दिया? सोचा, अपनी सखी का हाल-चाल ले आऊँ, आख़िर पड़ोसी का धर्म भी तो कोई चीज़ होती है।”
सुमित्रा काकी के चेहरे पर एक सधी हुई मुस्कान तैर गई। वो समझ गईं कि बुआ 'हाल' चाल पूछने नहीं, बल्कि 'मसाला' लेने आई हैं।
“अरे बुआ, तुम भी न... राई का पहाड़ बनाना तो कोई तुमसे सीखे,” सुमित्रा ने बड़ी सहजता से कहा। “घर है, चार बर्तन साथ होंगे तो खड़केंगे ही। बस काम-काज की हड़बड़ी थी और कुछ नहीं।”
फिर उन्होंने ज़रा ऊँची आवाज़ में पुकारा, “अरी काव्या बहू... ज़रा बाहर तो आना, देख विमला बुआ आई हैं।”
मसाला नहीं, मिठास मिली
रसोई से रबर की चप्पलों की हल्की आवाज़ आई और अगले ही पल काव्या बाहर बरामदे में आ गई। काव्या ने हल्के आसमानी रंग का सलवार-सूट पहन रखा था, सिर पर पल्लू सलीके से टिका हुआ था और चेहरे पर थकान की जगह ताज़गी थी।
“नमस्ते बुआजी,” काव्या ने झुककर विमला बुआ के पैर छुए।
विमला बुआ एक पल के लिए ठिठक गईं। उनके दिमाग में तो एक रोती-बिसूरती या मुँह फुलाए बैठी बहू की तस्वीर थी, जो सास को आँखें दिखा रही होगी। लेकिन यहाँ तो गंगा उल्टी बह रही थी।
“जीती रहो, बेटी,” बुआ ने आधे-अधूरे मन से आशीर्वाद दिया।
“बुआजी, आप बैठिए, मैं आपके लिए अदरक वाली कड़क चाय और मठरी लेकर आती हूँ। आज ही ताजी बनाई हैं,” काव्या ने बड़े अपनापे से कहा।
विमला बुआ, जो आग में घी डालने आई थीं, उन्हें अब पानी के छींटे पड़ते महसूस हो रहे थे। उन्होंने आखिरी दाँव खेला।
“हाँ-हाँ, ले आ चाय। वैसे सुमित्रा, आजकल की लड़कियों का मिज़ाज तो बड़ा गरम होता है। ज़रा सी रोक-टोक हो जाए तो घर सिर पर उठा लेती हैं। हमारी उम्र में तो मजाल थी कि सास के सामने ज़ुबान खुल जाए।”
बुआ की यह बात सीधे निशाने पर थी, ताकि अगर राख के नीचे कोई चिंगारी दबी हो, तो वो भड़क उठे।
लेकिन सुमित्रा काकी ने अपनी बहू की तरफ स्नेह से देखा और बोलीं, “सही कह रही हो बुआ, ज़माना बदल गया है। लेकिन मेरी काव्या तो लाखों में एक है। समझदार है, कभी-कभार काम के बोझ में थक जाती है, पर बड़ों का मान रखना जानती है।”
तभी काव्या चाय और नाश्ते की ट्रे लेकर आ गई। उसने बड़ी नज़ाकत से ट्रे मेज़ पर रखी और बोली, “माँजी, आप भी लीजिए न। सुबह से आप भी काम में लगी थीं।”
विमला बुआ ने चाय का घूँट भरा, लेकिन वो उनके गले के नीचे बड़ी मुश्किल से उतरी। न कोई शिकायत मिली, न कोई तौहीन, न ही कोई चटपटी ख़बर।
कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद, जब विमला बुआ को अपनी दाल गलती नहीं दिखी, तो वे उठीं।
“अच्छा सुमित्रा, अब चलती हूँ। घर पर और भी काम हैं।”
काव्या और सुमित्रा ने उन्हें गेट तक छोड़ा। जैसे ही गेट बंद हुआ, काव्या की मुस्कान ओझल हो गई।
चारदीवारी के भीतर का सच
काव्या ने गेट पर ताला लगाया और पलटकर अपनी सास को देखा। उसकी आँखों में अब आँसू तैर रहे थे।
“माँजी... मुझे माफ़ कर दीजिए।” काव्या की आवाज़ भर्रा गई।
सुमित्रा काकी ने प्रश्नभरी नज़रों से उसे देखा, “अब क्या हुआ पगली?”
“आज सुबह... मैंने आपसे कितनी बदतमीज़ी से बात की थी। महेश के टिफ़िन को लेकर मैंने आप पर चिल्ला दिया था कि ‘मुझे सांस लेने की फुरसत नहीं है और आप बस हुक्म चलाती हैं।’ आप चाहतीं तो अभी बुआ के सामने मेरी सारी पोल खोल सकती थीं। मेरी बुराई कर सकती थीं। पर आपने... आपने तो मुझे ही अच्छा बताया।”
काव्या का गला रुंध गया। सुबह का दृश्य उसकी आँखों के सामने घूम गया।
सुबह घर में सचमुच युद्ध का माहौल था। महेश को ऑफिस जाने की जल्दी थी, काव्या मोबाइल पर अपनी बहन से बात कर रही थी और गैस पर दूध उफन रहा था। सुमित्रा काकी ने बस इतना ही तो कहा था, “काव्या, फोन बाद में कर लेना, पहले महेश का नाश्ता देख ले।”
और काव्या, जो पहले से ही किसी बात पर चिढ़ी हुई थी, फट पड़ी थी। उसने न आव देखा न ताव, सास को खरी-खोटी सुना दी थी। महेश बिना नाश्ता किए, गुस्से में पैर पटकता हुआ चला गया था।
सुमित्रा काकी ने आगे बढ़कर काव्या के सिर पर हाथ रखा और उसे पास बिठाया।
“देख काव्या, जब हम अपने घर का कूड़ा बाहर फेंकते हैं, तो मोहल्ले वाले उसे साफ नहीं करते, बल्कि उस पर चर्चा करते हैं। अगर मैं विमला बुआ के सामने तेरा रोना रोती, तो उन्हें तो मज़ा आता, पर हमारे घर की इज़्ज़त तार-तार हो जाती।”
काव्या सिसकते हुए उनकी बात सुन रही थी।
“बेटा,” सुमित्रा ने गंभीरता से कहा, “सास और बहू का रिश्ता कच्चे धागे का नहीं, रेशम की डोरी जैसा होना चाहिए। अगर उसमें गाँठ पड़ भी जाए, तो उसे दुनिया को दिखाने की ज़रूरत नहीं है। उसे हम दोनों मिलकर खोल लेंगे। तेरी गलती, मेरी बेटी की गलती जैसी है। अगर मैं तुझे दुनिया के सामने बदनाम करूँगी, तो इसमें मेरी ही परवरिश पर सवाल उठेंगे।”
काव्या ने सुमित्रा काकी के हाथ थाम लिए। “माँजी, आप सच में माँ हैं। अपनी सगी माँ से भी बढ़कर। मैं वादा करती हूँ, आज के बाद कभी अपनी मर्यादा नहीं लांघूँगी। जिम्मेदारियाँ और अधिकार... दोनों का संतुलन बनाकर चलूँगी।”
सुमित्रा मुस्कुराईं, “चल पगली, अब रोना बंद कर। और सुन, उस महेश को फोन लगा। सुबह भूखा गया है बेचारा। उसे मना ले, वरना मेरा बेटा भूखा रहेगा तो मुझे नींद नहीं आएगी।”
नया सवेरा
काव्या दौड़कर अपने कमरे में गई और महेश को फोन मिलाया।
“हेलो... महेश?”
उधर से महेश की रूखी आवाज़ आई, “हाँ, बोलो। माँ ने शिकायत लगा दी क्या?”
“नहीं,” काव्या की आवाज़ में नमी और मुस्कान दोनों थी, “माँजी ने शिकायत नहीं लगाई, बल्कि मुझे बचाया है। वो कह रही थीं कि मेरा बेटा भूखा है, उसे मना ले। मुझे माफ़ कर दो महेश, सुबह मैंने बहुत गलत व्यवहार किया। शाम को जल्दी आ जाना, आपकी पसंद की आलू-बड़ी की सब्ज़ी और पूरियां बना रही हूँ।”
महेश की नाराज़गी पल भर में पिघल गई। “अच्छा? ठीक है, मैं जल्दी आऊँगा। और माँ से कहना... वो दुनिया की सबसे अच्छी माँ हैं।”
शाम को जब तुलसीपुर के उस घर में दीया-बत्ती का समय हुआ, तो रसोई से हँसी-मज़ाक की आवाज़ें आ रही थीं। सुमित्रा काकी और काव्या मिलकर खाना बना रही थीं। बाहर से गुज़रते हुए किसी ने फिर कान लगाकर सुनने की कोशिश की, पर इस बार उन्हें सिर्फ एक खुशहाल परिवार की खनक सुनाई दी।
उस दिन उस घर ने एक बड़ा सबक सीखा था—कि घर की दीवारें सिर्फ ईंट-पत्थर से नहीं, बल्कि एक-दूसरे के सम्मान और विश्वास से मजबूत होती हैं।
सीख: परिवार में मतभेद होना स्वाभाविक है, लेकिन समझदारी इसी में है कि 'घर की बात घर में ही रहे'। जब सास और बहू एक-दूसरे की ढाल बन जाती हैं, तो दुनिया की कोई भी नकारात्मकता उस घर की शांति भंग नहीं कर सकती।