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सहेली की जहरीली सलाह: जब 'उल्टी पट्टी' ने हंसते-खेलते घर में लगा दी आग
7 मिनट
पढ़ने का समयतुलसी के चौरे पर सन्नाटा
सुबह की हल्की धूप बरामदे में बिखर चुकी थी, लेकिन गायत्री देवी के घर के आँगन में एक अजीब सी खामोशी पसरी हुई थी। रोज की तरह गायत्री देवी नहा-धोकर, गीले बालों में तौलिया लपेटे, तुलसी के चौरे पर जल चढ़ाकर लौटी थीं। उनकी नजर अपने छोटे बेटे, आर्यन पर पड़ी, जो पिछले आधे घंटे से बिना वजह बरामदे में इधर-उधर टहल रहा था। उसके माथे पर पसीने की बारीक बूँदें थीं, जबकि मौसम सुहावना था।
आर्यन की शादी को अभी जुम्मा-जुम्मा दो महीने ही हुए थे। घर में नई बहू मीरा की चूड़ियों की खनक और पायल की छम-छम ने जैसे रौनक ला दी थी। लेकिन आज आर्यन का चेहरा देखकर गायत्री देवी का ममता भरा दिल खटक गया। उन्होंने अपनी पूजा की थाली एक ओर रखी और स्नेह से पूछा—
“क्या बात है आर्यन? आज तुझे ऑफिस नहीं जाना? सवेरे से ऐसे परेशान क्यों घूम रहा है जैसे पाँव में चक्कर बंधा हो?”
आर्यन ने माँ की ओर देखा, फिर नजरें चुरा लीं। उसने एक गहरी सांस ली, जैसे किसी भारी पत्थर को सीने से हटाना चाह रहा हो।
“माँ... मुझे और मीरा को आपसे कुछ जरूरी बात करनी है।”
दीवारों से पहले दरकते रिश्ते
गायत्री देवी ने पल्लू से हाथ पोंछे और कुर्सी पर बैठ गईं। “बोल बेटा, मैं सुन रही हूँ।”
आर्यन ने मुट्ठियाँ भींचीं और एक ही सांस में कह गया—
“माँ, मैं और मीरा अब अलग रहना चाहते हैं। आप भैया से कह दीजिये कि घर का हिसाब कर दें। हम अपना चूल्हा अलग करना चाहते हैं।”
ये शब्द गायत्री देवी के कानों में पिघले हुए सीसे की तरह उतरे। जो घर उन्होंने तिनका-तिनका जोड़कर बनाया था, आज उसका सबसे छोटा तिनका ही उसे बिखेरने की बात कर रहा था। उनकी आवाज़ काँप उठी—
“अलग? अरे, अभी तो मीरा के हाथों की मेहंदी भी नहीं छूटी है। ऐसा क्या पहाड़ टूट पड़ा बेटा? क्या मैंने या तेरी भाभी ने कुछ कह दिया?”
आर्यन ने झुंझलाते हुए कहा, “नहीं माँ, किसी ने कुछ नहीं कहा। बस... हमें अपनी 'स्पेस' चाहिए। संयुक्त परिवार की चिक-चिक और जिम्मेदारियों के बोझ में हमारी अपनी जिंदगी कहीं खो रही है।”
तभी रसोई से चाय की ट्रे लिए बड़ी बहू कविता बाहर आई। उसके कदम वहीं ठिठक गए। उसने ट्रे मेज पर रखी और अविश्वास से आर्यन को देखा।
“आर्यन, ये तुम क्या कह रहे हो? जिम्मेदारियों का बोझ? जरा बताओ तो, पिछले दो महीनों में मीरा ने ऐसा कौन सा भारी काम कर लिया? घर का सारा राशन मैं लाती हूँ, सुबह का नाश्ता और रात का खाना मैं बनाती हूँ। मीरा तो बस शाम की चाय में मदद करती है, वो भी अपनी मर्जी से।”
कविता की आवाज़ में गुस्सा कम और दुख ज्यादा था। उसने हमेशा आर्यन को देवर नहीं, बल्कि अपने बेटे की तरह माना था।
कानों में घोला गया जहर
आर्यन जवाब दे पाता, उससे पहले ही मीरा कमरे से बाहर आई। उसका चेहरा तमतमाया हुआ था, लेकिन आँखों में एक डर भी छिपा था। उसने पल्लू ठीक करते हुए कहा—
“दीदी, बात काम की नहीं है। बात ये है कि जॉइंट फैमिली में औरत की अपनी कोई पहचान नहीं रहती। सब बस 'बहु' बनकर रह जाती हैं। मुझे... मुझे घुटन होती है यहाँ।”
गायत्री देवी का दिल बैठ गया। उन्होंने भरे गले से पूछा, “बेटी, तुझे यहाँ घुटन होती है? इस घर ने तो तुझे पलकों पर बिठाकर रखा। फिर ये 'पहचान' खोने वाली बात तेरे मन में आई कहाँ से?”
मीरा चुप रही, लेकिन कविता ने उसकी आँखों में झाँकते हुए सख्त लहजे में पूछा—
“मीरा, सच-सच बताओ। ये तुम्हारे शब्द नहीं हैं। ये जरूर तुम्हारी वो सहेली ‘निशा’ की पट्टी पढ़ाई हुई है, है न?”
मीरा सकपका गई। “निशा का इससे कोई लेना-देना नहीं है... वो तो बस मेरा भला चाहती है। उसी ने समझाया कि चार बर्तन साथ रहेंगे तो खड़केंगे ही, इससे अच्छा है कि पहले ही अलग हो जाओ ताकि प्यार बना रहे।”
तभी घर के बड़े बेटे विक्रम, जो अब तक अखबार के पीछे छिपा सब सुन रहा था, ने अखबार को मोड़कर मेज पर पटका।
“वाह! तो अब हमारे घर के फैसले वो निशा लेगी? वो निशा, जिसका खुद का घर हर दूसरे दिन जंग का मैदान बना रहता है? जो अपने सास-ससुर को वृद्धाश्रम भेजने की धमकियाँ देती है?”
विक्रम अपनी जगह से उठा और आर्यन के कंधे पर हाथ रखा।
“आर्यन, तू तो समझदार था न? ‘दूसरे की थाली में घी ज्यादा दिखता है’, ये कहावत तो सुनी होगी। निशा अपनी जिंदगी में खुश नहीं है, इसलिए उसे दुनिया के हर खुशहाल परिवार से जलन होती है। वो तुम्हारे कान नहीं भर रही, बल्कि तुम्हारे भविष्य में जहर घोल रही है।”
आँसू और प्रायश्चित
कविता मीरा के पास गई और उसके दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए। कविता की आँखों में नमी थी।
“मीरा, याद है जब तुम पहली बार रसोई में आई थीं और तुमसे खीर जल गई थी? तब माँजी ने तुम्हें डाँटा था या हँसते हुए कहा था कि ‘शगुन की खीर है, थोड़ा सोंधापन अच्छा लगता है’? क्या निशा ने तुम्हें ये बताया कि मुसीबत आने पर वो तुम्हारे साथ खड़ी होगी? या सिर्फ घर तोड़ने का मंत्र देगी?”
मीरा की आँखों से आँसू छलक पड़े। उसे याद आया कि कैसे पिछले हफ्ते जब उसे बुखार हुआ था, तो कविता ने पूरी रात उसके सिरहाने बैठकर पट्टियां रखी थीं। गायत्री देवी ने अपने हाथों से खिचड़ी बनाकर खिलाई थी। निशा तो बस फोन पर भड़काने का काम करती थी।
मीरा सुबकते हुए बोली—
“दीदी... मुझे माफ कर दो। निशा रोज कहती थी कि अभी तो ये लोग प्यार दिखा रहे हैं, बाद में नौकरानी बना देंगे। मैं... मैं डर गई थी। मुझे लगा कहीं मेरी आजादी न छिन जाए।”
गायत्री देवी उठीं और मीरा के सिर पर हाथ फेरा।
“पगली, आजादी अपनों से दूर भागने में नहीं, बल्कि अपनों के बीच रहकर सुरक्षित महसूस करने में है। घर की दीवारें बाँटने से आँगन छोटा हो जाता है बेटा, और दिल भी।”
फिर से महका आँगन
आर्यन का सिर शर्म से झुक गया था। उसने आगे बढ़कर माँ और भैया के पैर छुए।
“भैया, मैं बहक गया था। मुझे लगा मैं मीरा का पक्ष ले रहा हूँ, पर मैं असल में अपने ही परिवार की जड़ें काट रहा था।”
विक्रम ने उसे गले लगा लिया और हँसते हुए बोला, “चल अब नौटंकी बंद कर। और सुन, घर का बंटवारा तो नहीं होगा, लेकिन हाँ, काम का बंटवारा जरूर होगा। आज रविवार है, तो नाश्ता हम दोनों भाई मिलकर बनाएंगे। माँ और बहुएँ आराम करेंगी।”
पूरे घर में हँसी की लहर दौड़ गई। जो माहौल कुछ देर पहले तनाव से भारी था, अब हल्का हो गया था।
मीरा ने आँसू पोंछे और कविता से लिपट गई। “दीदी, अब मैं किसी बाहरी की बातों में नहीं आऊँगी। ये घर मेरा भी उतना ही है जितना आपका।”
कविता ने मुस्कुराते हुए कहा, “तो फिर चलो, मर्दों को रसोई का कबाड़ा करने दें, हम दोनों चलकर ठंडी लस्सी बनाते हैं।”
उस शाम, गायत्री देवी के घर के तुलसी चौरे पर फिर से दीया जला। रौशनी वही थी, पर आज उसकी चमक कुछ और ही थी—विश्वास की, प्रेम की, और एक-दूसरे को समझने की। घर बंटने से बच गया था, क्योंकि दिलों के बीच आई दरार को वक्त रहते समझदारी के सीमेंट से भर दिया गया था।
सीख: घर की बातें घर में ही सुलझानी चाहिए। दूसरों की सलाह अक्सर उनकी अपनी कुंठाओं का प्रतिबिंब होती है। कच्ची मिट्टी जैसे रिश्तों को पकने के लिए शक की आँच नहीं, विश्वास की धूप चाहिए होती है।