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पत्थर दिल पिता का सच: एक फौजी के अनकहे दर्द और फ़र्ज़ की मर्मस्पर्शी कहानी
7 मिनट
पढ़ने का समयबरसात की वो एक रात और पुराने संदूक का रहस्य
बाहर सावन की झड़ी लगी थी, और भीतर बरामदे में बैठे सूबेदार सूर्यकांत के मन में यादों का बवंडर उमड़ रहा था। गाँव की पुरानी हवेली की खपरैल छत से पानी रिसकर पीतल की बाल्टी में 'टप-टप' गिर रहा था। यह आवाज़ उस सन्नाटे को और गहरा कर रही थी जो उनकी पत्नी, सावित्री के जाने के बाद से इस घर में पसरा हुआ था। सूर्यकांत जी ने अपनी कांपती उंगलियों से लोहे का वो भारी संदूक खोला, जो उनके पलंग के नीचे बरसों से बंद पड़ा था। उसमें से फिनाइल की गोलियों और पुरानी वर्दी की एक अजीब सी महक उठी। उस संदूक में उनकी जवानी कैद थी—सेना के कुछ पुराने दस्तावेज, एक चमकता हुआ मेडल और वो वर्दी, जिसे पहनकर वो कभी हवा से बातें किया करते थे।
सूर्यकांत अब पचहत्तर के पड़ाव पर थे। कमर थोड़ी झुक गई थी और चेहरे पर झुर्रियों का जाल था, मगर आँखों में वो ही पुरानी चमक थी, जैसे किसी जलते हुए दीये की लौ। गाँव वाले उन्हें इज्जत से 'सूबेदार साहब' कहते थे, लेकिन उनके अपने ही बेटे, मोहन के लिए वो महज एक जिद्दी और पत्थर दिल इंसान थे, जिनके लिए घर-परिवार का कोई मोल नहीं था।
अचानक आगमन और पिता-पुत्र का द्वंद्व
मोहन शहर में एक बड़ी कंपनी में मैनेजर था। साल-दो साल में एकाध बार रस्म अदायगी के लिए गाँव आता। आज भी वो बिना खबर दिए आ धमका था। बारिश में भीगता हुआ जब वह आंगन में दाखिल हुआ, तो उसके चेहरे पर चिंता कम और झुंझलाहट ज्यादा थी।
“बाबूजी, अपना सामान बांध लीजिए। मैं आपको लेने आया हूँ,” मोहन ने गीला छाता कोने में पटकते हुए कहा।
सूर्यकांत ने अपनी वर्दी को प्यार से सहलाते हुए सिर उठाया, “शहर? अरे, इस उम्र में उस सीमेंट के जंगल में मेरा दम घुट जाएगा बेटा।”
“तो यहाँ क्या रखा है? माँ चली गईं, पूरा घर भूतहा लगता है। अकेले कब तक और क्यों पड़े रहेंगे यहाँ?” मोहन का स्वर ऊँचा हो गया, “वहाँ कम से कम डॉक्टर तो पास होंगे।”
सूर्यकांत ने संदूक का ढक्कन धीरे से बंद किया और एक गहरी सांस ली। “अकेला कहाँ हूँ मोहन? इस घर के कोने-कोने में तेरी माँ की पायल की छनकार है, मेरी ड्यूटी की यादें हैं। इंसान अपनी जड़ों को छोड़कर गमले में नहीं खिल सकता।”
मोहन तमतमा गया, “फिर वही ड्यूटी! कौन सी ड्यूटी बाबूजी? फौज छोड़े ज़माना हो गया। इसी 'ड्यूटी' के पागलपन ने तो हमारा घर उजाड़ दिया।”
सूर्यकांत फीकी हंसी हंसे, “बेटा, वर्दी उतरने से फौजी का फ़र्ज़ नहीं उतरता। फ़र्ज़ तो वो साया है जो चिता की आग तक साथ जाता है।”
मोहन चुप हो गया, लेकिन उसके अंदर का लावा दहक रहा था। उसे आज भी वो काली रात याद थी जब उसकी माँ बुखार में तप रही थीं और बाबूजी सरहद पर तैनात थे। माँ उसे छाती से लगाए, दरवाज़े की तरफ देखते-देखते प्राण त्याग गई थीं। मोहन को हमेशा लगता था कि उसके पिता ने देश के लिए अपने परिवार की बलि चढ़ा दी। यह घाव समय के साथ भरने के बजाय नासूर बन गया था।
तूफानी रात और फर्ज की पुकार
रात गहराते-गहराते बारिश ने रौद्र रूप ले लिया। बिजली की कड़कड़ाहट से पुरानी हवेली की नींव तक हिल रही थी। तभी, हवा के शोर को चीरती हुई किसी की कराहने की आवाज़ आई।
सूर्यकांत का शरीर, जो अभी गठिया के दर्द से कराह रहा था, बिजली की फुर्ती से खड़ा हो गया। उन्होंने खूंटी पर टंगी अपनी लाठी उठाई और टार्च हाथ में ले ली।
“बाबूजी, पगला गए हैं क्या? बाहर प्रलय आ रही है!” मोहन ने उनका रास्ता रोका।
“आवाज़ सुनी तूने? कोई मुसीबत में है। जान बचाना भी एक जंग है, और सिपाही कभी पीठ नहीं दिखाता।” सूर्यकांत ने बेटे का हाथ झटक दिया और आंधी में बाहर निकल गए। मोहन के पास उनके पीछे जाने के सिवा कोई चारा न था।
जान की बाजी
गाँव के निचले हिस्से में पानी भर रहा था। वहाँ कल्याणी मौसी की झोपड़ी थी। वही कल्याणी, जो पूरे गाँव में सूर्यकांत जी की बुराई करती नहीं थकती थीं—“अरे, वो तो पत्थर है पत्थर, जिसने अपनी बीवी को नहीं पूछा, वो गाँव का क्या होगा?”
आज उसी कल्याणी की झोपड़ी की छत गिर चुकी थी और वो मलबे के नीचे दबी चीख रही थीं। पानी उनकी कमर तक चढ़ आया था।
सूर्यकांत ने एक पल नहीं सोचा। वो उफनते पानी में घुस गए। मोहन किनारे पर खड़ा सहम गया था। उसने देखा कि उसका बूढ़ा बाप, जिसके हाथ चाय का प्याला उठाते वक्त कांपते थे, आज मलबा ऐसे हटा रहा था जैसे उसमें दस हाथियों का बल आ गया हो।
“मोहन! खड़ा क्या है? हाथ लगा!” सूर्यकांत की दहाड़ ने मोहन को होश में लाया।
दोनों ने मिलकर भारी शहतीर हटाया और कल्याणी मौसी को बाहर खींचा। सूर्यकांत ने अपनी परवाह किए बिना अपनी शॉल मौसी को ओढ़ाई और उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। मोहन ने गौर किया कि पिता के पैर से खून बह रहा था, लेकिन उनके चेहरे पर एक अजीब सा सुकून था। उसे लगा जैसे उसने आज अपने पिता को पहली बार देखा हो।
वो अनकहा दर्द और प्रायश्चित
अगली सुबह, तूफान थम चुका था। सूर्यकांत आंगन में नीम के पेड़ के नीचे बैठे अपने घाव पर हल्दी लगा रहे थे। मोहन दो गिलास चाय लेकर उनके पास आया।
“बाबूजी,” मोहन की आवाज़ भारी थी, “कल रात आपको डर नहीं लगा? कल्याणी मौसी तो आपको कितना बुरा-भला कहती थीं।”
सूर्यकांत ने चाय का घूंट भरा और मुस्कुराए, “बेटा, जब किसी की जान बचानी हो, तो यह नहीं देखा जाता कि वो दोस्त है या दुश्मन। यही तो इंसानियत का धर्म है।”
मोहन कुछ पल चुप रहा, फिर उसने वो सवाल पूछ ही लिया जो बरसों से उसके सीने में गड़ा था। “बाबूजी... माँ के समय... क्या आपको सच में उनकी याद नहीं आई थी? आप क्यों नहीं आए थे?”
यह सुनकर सूर्यकांत की पथराई आँखों से आंसुओं का सैलाब फूट पड़ा। वो कठोर फौजी आज एक बेबस पति बन गया था।
उन्होंने रूंधे गले से कहा, “मोहन... उस रात सरहद पर घुसपैठ हुई थी। मेरे पीछे मेरे पचास जवान थे। अगर मैं सावित्री के मोह में घर आ जाता, तो उन पचास माओं की गोद सूनी हो जाती। जब मैं लौटा, तो मेरी दुनिया उजड़ चुकी थी। मैं एक पति के रूप में हार गया मोहन, लेकिन एक रक्षक के रूप में मुझे जीतने की मजबूरी थी। तेरी माँ की वो आखिरी निगाहें मुझे आज भी सोने नहीं देतीं।”
मोहन सन्न रह गया। उसे आज समझ आया कि पिता की सख्ती, उनका अनुशासन, दरअसल उनके भीतर छिपे उस गहरे ज़ख्म का कवच था जिसे वो दुनिया से छुपाते रहे। जिसे वह पत्थर समझ रहा था, वो दरअसल मोम था जो दूसरों के लिए पिघलता रहा। मोहन ने झुककर अपने पिता के चरणों में सिर रख दिया और फूट-फूट कर रो पड़ा।
विदाई और नई समझ
शाम को मोहन वापस शहर जाने के लिए तैयार था। लेकिन इस बार उसके व्यवहार में वो अकड़ नहीं थी।
“बाबूजी, मैं जा रहा हूँ,” मोहन ने नम आँखों से कहा, “आपको साथ चलने की ज़िद नहीं करूँगा। अब समझ गया हूँ कि यह गाँव सिर्फ आपकी जगह नहीं, आपका मोर्चा है। और सिपाही अपना मोर्चा नहीं छोड़ता।”
सूर्यकांत ने आगे बढ़कर बेटे को गले लगा लिया। “खुश रहो बेटा। बस याद रखना, जीवन में पद और पैसा चाहे जितना कमा लो, जब रात को सिर तकिए पर रखो, तो ज़मीर साफ़ होना चाहिए कि आज मैंने अपना फ़र्ज़ निभाया।”
गाड़ी धूल उड़ाती हुई चली गई, लेकिन सूर्यकांत अब अकेले नहीं थे। उनके पास बेटे का वो नया सम्मान था, जो शायद किसी भी मेडल से बड़ा था। उन्होंने आसमान की तरफ देखा, मानो सावित्री से कह रहे हों—“देखो, आज हमारा बेटा सब समझ गया।”
सीख: परिवार के प्रति प्रेम और समाज के प्रति कर्तव्य, दोनों का अपना स्थान है। अक्सर बड़ों की कठोरता के पीछे उनका वो त्याग छिपा होता है, जिसे वो कभी शब्दों में बयां नहीं कर पाते। उन्हें समझने के लिए हमें उनकी परिस्थितियों को उन्हीं की नज़रों से देखना होगा।