सोने का पिंजरा: दुनिया के सामने 'परफेक्ट' पर घर में अजनबी

सोने का पिंजरा: दुनिया के सामने 'परफेक्ट' पर घर में अजनबी

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सोने का पिंजरा और नकली मुस्कान

बनारसी साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए सुधा ने एक बार आईने में अपनी छवि देखी। माथे पर लगी बड़ी सी लाल बिंदी और गले में चमकता हुआ कुंदन का हार—सब कुछ एकदम सलीके से सजा हुआ था। बाहर हॉल में रिश्तेदारों का जमावड़ा था, आज उसके जेठ के बेटे की सगाई थी। कमरे का दरवाज़ा खुला और राघव अंदर आया। उसने अपनी शेरवानी की बटन ठीक करते हुए सुधा की ओर देखा और एक सधी हुई मुस्कान के साथ कहा, "तैयार हो? चलो, सब इंतज़ार कर रहे हैं। और हाँ, चेहरे पर वो 'परफेक्ट' मुस्कान रखना, बुआ जी और मौसी जी आई हैं, कोई कमी नहीं दिखनी चाहिए।"

सुधा ने एक गहरी साँस ली और राघव का हाथ थाम लिया। कमरे की चौखट लांघते ही, जैसे जादू की छड़ी घूमी हो, दोनों के चेहरे खिल उठे। जो कोई भी उन्हें देखता, बस यही कहता—"जोड़ी हो तो राघव और सुधा जैसी, जैसे राम-सीता का जोड़ा हो।" रिश्तेदारों के बीच वे दोनों 'आदर्श दंपति' की मिसाल थे। कोई भी फंक्शन हो, उनकी तस्वीरें सबसे शानदार आती थीं, व्हाट्सएप के फैमिली ग्रुप्स में उनकी जोड़ी की तारीफों के पुल बंध जाते थे।

लेकिन उस चमकती हुई छवि के पीछे का अँधेरा केवल सुधा जानती थी। दुनिया के लिए वे 'मेड फॉर ईच अदर' थे, लेकिन बंद कमरे में वे दो अजनबियों की तरह रहते थे।

चमक के पीछे का सूनापन

समारोह में हर कोई राघव की तरक्की और सुधा के सलीके की तारीफ कर रहा था। राघव का ध्यान पूरी तरह इस बात पर था कि समाज में उनकी 'इज्जत' और 'रूतबा' बना रहे। उसने सुधा का हाथ तो थाम रखा था, लेकिन उसकी पकड़ में वो गर्माहट नहीं थी, बस एक दिखावे की जकड़ थी।

सुधा का मन आज बहुत भारी था। पाँच साल हो गए थे उनकी गृहस्थी को। शुरू-शुरू में जो प्रेम की चाशनी थी, वो अब दिखावे की कड़वाहट में बदल चुकी थी। राघव के लिए 'लोग क्या कहेंगे' का डर, सुधा की भावनाओं से कहीं बड़ा था। किस रिश्तेदार के सामने कैसे हँसना है, कौन सी साड़ी पहननी है ताकि लोग अमीर समझें, सोशल मीडिया पर सालगिरह की कितनी बड़ी पोस्ट डालनी है—ये सब राघव तय करता था।

तभी सुधा की नज़र बरामदे के कोने में बैठे राघव के छोटे चचेरे भाई, मोहन और उसकी पत्नी सरिता पर पड़ी। सरिता की साड़ी साधारण थी, शायद प्रेस भी ठीक से नहीं हुई थी। मोहन का कुर्ता भी पुराना लग रहा था। वे दोनों एक ही प्लेट में दही-बड़े खा रहे थे। खाते-खाते सरिता की नाक पर थोड़ी चटनी लग गई, तो मोहन ने अपनी जेब से रुमाल निकालकर बेझिझक पोंछ दिया और दोनों खिलखिला कर हँस पड़े।

वहाँ न कोई कैमरा था, न कोई दिखावा। वे आपस में लड़ भी रहे थे कि "तुमने तीखा ज्यादा ले लिया," और एक-दूसरे का ख्याल भी रख रहे थे।

सच्चाई का आईना

उस दृश्य ने सुधा के दिल में एक हलचल मचा दी। उसे लगा जैसे किसी ने कहावत सच कर दी हो—'ऊँची दुकान, फीका पकवान'। हम दुनिया को दिखाने के लिए महंगे कपड़े और झूठी हँसी ओढ़े हैं, लेकिन अंदर से कितने खोखले हैं। और वो दोनों, शायद दुनिया की नज़र में 'परफेक्ट' न हों, लेकिन उनके रिश्ते में 'जीवन' है।

पार्टी खत्म हुई। सबकी तारीफें बटोर कर जब वे दोनों अपनी कार में बैठे, तो वही चिर-परिचित खामोशी छा गई। कार का एसी चल रहा था, लेकिन माहौल में घुटन थी। राघव अपनी टाई ढीली करते हुए मोबाइल में सगाई की तस्वीरें देखने लगा।

"देखो सुधा, बुआ जी ने कमेंट किया है—नज़र न लगे मेरी बहु-बेटे को," राघव ने खुश होकर कहा।

सुधा ने खिड़की से बाहर देखते हुए, बहुत धीमे लेकिन दृढ़ स्वर में पूछा, "राघव, क्या हम सच में खुश हैं? या हम सिर्फ़ एक नाटक खेल रहे हैं?"

राघव ठिठक गया। उसने मोबाइल नीचे रखा और झुंझलाते हुए बोला, "अब ये क्या नया ड्रामा है? समाज में हमारी कितनी इज़्ज़त है, तुम्हें अंदाज़ा भी है? लोग हमारी मिसाल देते हैं।"

सुधा की आँखों में आँसू तैर आए, उसने राघव की ओर देखा, "राघव, मिसालें दीवारों पर टंगी तस्वीरों की दी जाती हैं, ज़िंदा इंसानों की नहीं। उस इज़्ज़त का मैं क्या करूँ, जब घर की चारदीवारी में मेरे मन की बात सुनने वाला कोई नहीं? हम दुनिया से तो जीत रहे हैं, पर एक-दूसरे को हार रहे हैं।"

समझौता नहीं, संवाद

राघव के पास इस बार कोई जवाब नहीं था। 'घर की बात घर में रहने दो' का मंत्र रटने वाला राघव आज निरुत्तर था। उसने पहली बार सुधा की आँखों में वो खालीपन देखा जो अब तक उसकी झूठी मुस्कान के पीछे छिपा था। उसे महसूस हुआ कि 'थोथा चना बाजे घना' वाली कहावत उनके रिश्ते पर सटीक बैठ रही थी—बाहर शोर बहुत था, पर अंदर सार कुछ नहीं।

घर पहुँचकर वे दोनों ड्राइंग रूम में बैठे। सुधा ने आज हिम्मत नहीं हारी। उसने चाय के दो कप बनाए और राघव के सामने रखते हुए बोली,

"मैं थक गई हूँ राघव। मैं वो गुड़िया नहीं बन सकती जिसे आप समाज के सामने सजा कर पेश करें। अगर हमें इस रिश्ते को बचाना है, तो ये मुखौटा उतारना होगा। मुझे वो पति चाहिए जो मेरी साड़ी की तारीफ दुनिया के सामने न करे, बल्कि जब मैं बीमार हूँ तो मेरे लिए खिचड़ी बना सके। क्या हम सच में एक-दूसरे के साथ हैं?"

"लेकिन सुधा, हम झगड़ते तो नहीं हैं न?" राघव ने रक्षात्मक होकर कहा।

सुधा ने फीकी हँसी के साथ कहा, "जहाँ संवाद ही नहीं, वहाँ झगड़ा कैसा? और जहाँ मन मिले न हों, वहाँ शांति भी श्मशान जैसी होती है, घर जैसी नहीं। राघव, अगर मन कुछ और चाहे और जुबान कुछ और कहे, तो उसे झूठ कहते हैं। हम बरसों से झूठ जी रहे हैं।"

राघव ने चाय का कप उठाया, हाथ थोड़ा काँप रहा था। वह बिजनेस की बड़ी-बड़ी डील संभाल लेता था, लेकिन आज अपने ही घर का समीकरण उसे बिगड़ा हुआ लग रहा था। उसने गहरी सांस ली और धीरे से बोला,

"शायद तुम सही कह रही हो सुधा। मैंने 'बेस्ट कपल' का टैग पाने के चक्कर में 'बेस्ट फ्रेंड' खो दिया। मैं... मैं कोशिश करूँगा। क्या तुम मेरा साथ दोगी, इस मुखौटे को उतारने में?"

सुधा ने राघव के हाथ पर अपना हाथ रखा, इस बार पकड़ में दिखावा नहीं, अपनापन था। "साथ तो मैं सात जन्मों तक दूँगी, बस शर्त यह है कि अब हमारे बीच कोई पर्दा नहीं होगा, चाहे वो सोने का ही क्यों न हो।"

नई सुबह, नई शुरुआत

उस रात देर तक बातें हुईं। कोई दिखावा नहीं, कोई स्टेटस अपडेट नहीं। उन्होंने एक-दूसरे की कमियों पर बात की, अपनी चिंताओं को साझा किया। जैसे बरसों से जमा धूल साफ़ हो गई हो।

वक्त लगा, क्योंकि आदतें इतनी आसानी से नहीं छूटतीं। 'रस्सी जल गई पर बल नहीं गया' वाली हालत थी कभी-कभी राघव की, जब वह फिर से 'लोग क्या कहेंगे' की चिंता करने लगता। लेकिन सुधा उसे प्यार से टोक देती। उन्होंने सोशल मीडिया पर तस्वीरें डालना कम कर दिया। अब वे रविवार को होटल जाने के बजाय घर की बालकनी में बैठकर अदरक वाली चाय पीते और घंटों गप्पें मारते।

कभी-कभी अब उनके बीच नोक-झोंक भी होती, आवाज़ें भी ऊंची होतीं, रूठना-मनाना भी चलता। लेकिन अब उनके घर में सन्नाटा नहीं था, बल्कि एक ज़िंदा रिश्ते की धड़कन थी। अब रिश्तेदारों को उनकी तस्वीरें कम दिखतीं, लेकिन जब कोई घर आता, तो उनके चेहरों पर सुकून साफ़ दिखता था।

सुधा और राघव समझ चुके थे कि रिश्ता वो नहीं जो दुनिया को 'परफेक्ट' लगे, बल्कि वो है जहाँ आप अपनी कमियों के साथ भी 'स्वीकार' किए जाएँ।

सीख: घर की नींव ईंट-पत्थर से नहीं, बल्कि आपसी विश्वास और संवाद से मजबूत होती है। समाज की वाहवाही के लिए अपनी खुशियों का गला न घोंटें, क्योंकि अंत में साथ निभाने के लिए 'लाइक्स' नहीं, आपका जीवनसाथी ही काम आता है।