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सम्मान की रोटी: दीनानाथ काका के आत्मसम्मान की एक दिल छू लेने वाली कहानी
6 मिनट
पढ़ने का समयगांव चंदनपुर के उस पुराने देवी मंदिर के प्रांगण में खड़ा वो विशाल नीम का पेड़ सिर्फ एक पेड़ नहीं था, बल्कि गांव की धड़कन था। उसकी घनी छांव में, जहाँ मंदिर की घंटियों की गूंज और पक्षियों की चहचहाहट का संगम होता था, वहीं अपना छोटा सा संसार बसाए बैठे थे दीनानाथ काका। उनकी दुनिया छोटी थी—कुछ पुराने औजार, चमड़े के टुकड़े, सुई-धागा और एक सदाबहार मुस्कान।
दीनानाथ काका के पास एक मटकी हमेशा रहती थी, जिस पर गीला कपड़ा लिपटा होता। जेठ की तपती दुपहरी में जब सूरज आग उगलता, तो उस मटकी का पानी अमृत जैसा लगता था। स्कूल से लौटते बच्चे अक्सर वहाँ रुकते। वे न केवल पानी पीते, बल्कि काका की झोली से गुड़ की डली भी चुरा लेते। काका सब जानकर भी अनजान बने रहते, जैसे घर की बुजुर्ग दादी बच्चों की शरारतों पर भी मुस्कुरा देती है। वे कहते, "अरे लल्ला, धीरे दौड़ो, चप्पल टूट गई तो फिर मेरे ही पास आओगे सिलवाने।" बच्चे खिलखिला पड़ते। उस वक्त काका और बच्चों के बीच न कोई जात थी, न कोई ऊंच-नीच, बस एक "बाबा और नाती" जैसा पवित्र रिश्ता था।
वक्त की आंधी और बदलते रिश्ते
कहते हैं न, 'समय बड़ा बलवान होता है', पर कभी-कभी यह बड़ा निष्ठुर भी हो जाता है। जैसे-जैसे वे नन्हे बच्चे किशोरावस्था की दहलीज पर चढ़े, समाज की कुरीतियां उनके कोमल मनों पर काई की तरह जमने लगीं। जो बच्चे कभी काका की गोद में चढ़कर कहानियां सुनते थे, अब वे उनके पास से गुजरते हुए कतराने लगे।
माताओं ने, जो कभी अपने बच्चों को काका के पास छोड़कर निश्चिंत हो जाती थीं, अब सिखाना शुरू कर दिया—"अरे, वो दीनानाथ नीची जात का है, उसके छुए मटके को हाथ मत लगाना।" धीरे-धीरे मंदिर के बाहर बैठा वो बूढ़ा इंसान बच्चों के लिए 'काका' से 'अछूत मोची' बन गया।
गाँव में जब शादियों की शहनाई बजती, तो दीनानाथ काका को बुलाया जरूर जाता, क्योंकि उनके सिले जूतों के बिना दूल्हे का शृंगार अधूरा था। लेकिन, वही जूते जो काका ने अपने हाथों से संवारे थे, उन्हें पहनकर लोग मखमली गद्दों पर बैठते, और काका को घर के पिछवाड़े, नाली के पास बैठने का हुक्म मिलता। उन्हें खाना भी ऐसे दिया जाता जैसे किसी जानवर को डाला जा रहा हो—दूर से और पत्तल पर। काका की बूढ़ी आंखों में यह अपमान सुई की तरह चुभता, पर होंठों पर वही पुरानी मुस्कान चिपकी रहती। वे मन ही मन सोचते, "हे ईश्वर! मेरे हुनर को सम्मान है, पर मेरे वजूद को क्यों नहीं?"
एक अजनबी मुलाकात और आत्मसम्मान की जागृति
एक दिन, जब सूरज ठीक सिर पर था, एक लग्जरी गाड़ी मंदिर के पास आकर रुकी। उसमें से शहर से आया एक जोड़ा उतरा—आदित्य और उसकी पत्नी स्नेहा। वे शायद शहर की भागदौड़ से दूर शांति की तलाश में आए थे। काका अपनी धुन में मग्न थे कि तभी स्नेहा की आवाज़ आई, "काका, क्या थोड़ा पानी मिलेगा? बहुत प्यास लगी है।"
काका हड़बड़ा गए। वर्षों से किसी सवर्ण ने उनसे पानी नहीं मांगा था। उन्होंने संकुचाते हुए अपना हाथ पीछे खींच लिया और बोले, "बेटी, मैं... मैं दीनानाथ मोची हूँ। आप सामने हैंडपंप से पी लो।"
लेकिन आदित्य ने आगे बढ़कर काका के पास रखी मटकी उठाई, खुद पानी पिया और अपनी पत्नी को भी पिलाया। फिर काका के खुरदुरे, काले पड़े हाथों को अपने हाथों में थामकर बोला, "काका, प्यास बुझाने वाले के हाथ कभी अपवित्र नहीं होते। आपके हाथ तो मेहनत के पसीने से धुले हैं, इनसे ज्यादा पवित्र और क्या होगा?"
स्नेहा ने भी मुस्कुराकर कहा, "और काका, सुना है आप बहुत बढ़िया मरम्मत करते हैं, मेरी सैंडल की ये बद्दी ठीक कर देंगे?" वे दोनों वहीं नीम की जड़ों पर काका के बराबर बैठ गए। 'बराबर'—यह शब्द काका के जीवन में पहली बार सच हुआ था। जाते वक्त आदित्य ने काका को गले लगाया और कहा, "शुक्रिया दोस्त।"
उस रात दीनानाथ काका सो नहीं पाए। 'दोस्त' शब्द उनके कानों में गूंज रहा था। उन्हें एहसास हुआ कि जिसे वे अपनी नियति मानकर जी रहे थे, वह असल में समाज की थोपी हुई बेड़ियां थीं।
स्वाभिमान की नई सुबह
कुछ हफ्तों बाद, दीनानाथ काका ने एक बड़ा फैसला लिया। उन्होंने अपनी झोपड़ी, वो पुरानी जगह और वो अपमानजनक जीवन छोड़ने का निर्णय किया। वे शहर के पास स्थित एक 'मानव सेवा आश्रम' (कबीर मठ) चले गए, जिसके बारे में उन्होंने सुना था कि वहां 'साहिब बंदगी' के अलावा कोई जात नहीं पूछी जाती।
काका के जाते ही, नीम के नीचे की जगह सूनी हो गई। शुरू में गांव वालों ने बातें बनाईं—"अरे, धर्म भ्रष्ट कर लिया होगा", "पागल हो गया है बुढ़ापे में"। लेकिन सच तो कुछ और ही था। आश्रम में दीनानाथ काका को 'सेवादार' का दर्जा मिला। वहां सब एक पंगत में बैठकर खाते, एक साथ भजन गाते। काका वहां भी जूते बनाने और सिखाने का काम करने लगे, लेकिन अब यह काम 'मजूरी' नहीं, 'कला' था।
सालों बाद, जब मैं (लेखिका) उस आश्रम में एक सत्संग के लिए गई, तो मैंने देखा कि एक ऊंचे चबूतरे पर सफेद वस्त्र पहने एक बुजुर्ग बैठे हैं। उनके चेहरे पर एक दिव्य तेज था। लोग उनके पैर छू रहे थे और वे आशीर्वाद में कह रहे थे—"माटी एक, कुम्हार एक, सब में एक ही नूर।"
ये वही दीनानाथ काका थे। जब मैंने उन्हें अपना परिचय दिया और पुरानी बातें याद दिलाईं, तो वे गंभीर हो गए। मैंने पूछा, "काका, क्या आपको अपना गांव, वो घर याद नहीं आता?"
उन्होंने मेरी आँखों में देखते हुए, बड़े ही ठहराव के साथ जवाब दिया, "बेटी, घर ईंट-पत्थर का नहीं, सम्मान का होता है। वहां मैं 'मोची' था, यहाँ मैं 'इंसान' हूँ। इंसान को जब अपनी कीमत पता चल जाती है, तो वो कूड़े के ढेर पर बैठना छोड़ देता है। मैंने धर्म नहीं बदला, मैंने बस अपनी नज़रिया बदला है और अपना सिर उठाया है।"
उनकी बात सुनकर मुझे लगा कि नीम का पेड़ आज भी वहीं होगा, पर उसकी छांव अब अधूरी है। असली सुकून तो वहां है जहां मन को इज़्ज़त की रोटी मिले। दीनानाथ काका ने हम सबको, खास तौर पर हर उस औरत को जो घर में खुद को सबसे आखिर में रखती है, यह सिखा दिया कि सम्मान मांगा नहीं जाता, उसे अपने वजूद की ताकत से कमाया जाता है।
सीख: घर हो या समाज, किसी भी रिश्ते की नींव 'सम्मान' पर टिकी होती है। अपना आत्मसम्मान कभी भी किसी की संकीर्ण सोच के आगे झुकने न दें, क्योंकि ईश्वर ने हम सबको एक ही मिट्टी से गढ़ा है।